Friday, February 15, 2019

सभी सैनिकों को विन्रम श्रधांजलि। बाबुल इनायत

एक जख्मी सैनिक अपने साथी से कहता है

साथी घर जाकर मत कहना, संकेतों में बतला देना।
यदि हाल मेरी माता पूछें तो, जलता दीप बुझा देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, दो आंसू तुम छलका देना।
यदि हाल मेरी बहना पूछे तो, सूनी कलाई दिखा देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, राखी तोड़ दिखा देना।
यदि हाल मेरी पत्नी पूछे तो, मस्तक तुम झुका देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, मांग का सिन्दूर मिटा देना।
यदि हाल मेरा पापा पूछे तो, हाथों को सहला देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, लाठी तोड़ दिखा देना।
यदि हाल मेरा बेटा पूछे तो, सर उसका सहला देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, सीने से उसको लगा देना।
यदि हाल मेरा भाई पूछे तो, खाली राह दिखा देना।
इतने पर भी वो ना समझे तो, सैनिक धर्म बता देना।।


1 comment:

  1. सैनिकों पर बोलो तो इंटेलेक्चुअल आतंकवादी हैं और किसानों पर बोलें तो एसी में बैठे पत्रकार.

    "युद्ध करा दो. बदला लो. एक के बदले 50 सिर. खून उबल रहा है. काट दो."

    ये सारे बोल मध्यमवर्गीय शहरी लोग अपने लिविंग रूम में बैठे धड़ाधड़ छाप रहे हैं. इनसे पूछो कि इनसे घर से कितने सैनिक हैं, जिनके सिर कटवाने को ये आतुर हैं? इनसे ये भी पूछो कि तैयारी करके सैनिक क्यों नहीं बनते हैं? क्या शहरी लड़के सैनिक बनने के लिए सुबह चार बजे उठकर दौड़ लगा रहे हैं? शहरों से अफसर निकलते हैं. आंकड़े निकलवा कर देख लीजिए. जिस ग्रामीण परिवेश के सैनिक हर आतंकी हमले में मारे जाते हैं उन्हीं के पिताजी जब दिल्ली अपने हकों के लिए पहुँचते हैं तो ये ही मध्यमवर्गीय शहरी उन्हें भी आतंकी बोलते हैं. इन्हें लगता है कि किसान को अपने खेत में पड़े रहकर फावड़ा चलाना चाहिए यहां हमारे शहर को गंदा क्यों करने आए हैं.

    जिस देशभक्ति का परिचय ये सोशल मीडिया पर दे रहे हैं अगर उसको जांचना है तो इनके निजी जीवन को खंगालिए. मैं छोटी सी थी तब से देख रही हूँ कि एक पड़ोस की बुआ के पति कारगिल में शहीद हुए थे. उन्हें सरकार ने पेट्रोल पम्प और मुआवजा दिया था. चार दिन की देशभक्ति के बाद ज़्यादातर लोगों को उनके लिए हमदर्दी कभी नहीं रही. ये ईर्ष्या रही कि इसके पास पेट्रोल पम्प है. उस बुआ ने दूसरी शादी की तो लोगों ने बातें बनाई. ये लोग शहीदों की पत्नियों को ताउम्र दुःख और यातनाओं में देखने के आदि हैं. ये है मध्यमवर्ग की देशभक्ति.

    दिल्ली विश्वविद्यालय में स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को मिले कोटे के लिए
    लोगों को हीन भावना से ग्रस्त होते देखा है कि उनके दादा-परदादा कर गए तो ये लोग फायदा उठा रहे हैं. मतलब सैनिकों को युद्ध में भेजकर शहीद होने की वकालत भी और उनके बच्चे नौकरी या पढ़ाई में मिले कोटे को कोसते भी रहो. ये है मध्यमवर्ग की देशभक्ति.

    हरियाणा के जिसे इलाके से मैं हूं इस इलाके के हर घर से तीन-तीन फौजी हैं. मेरे घर में मेरे पिताजी किसान, मेरे दादा जी बीएसएफ, मेरे ताऊजी बीएसएफ, मेरे चाचा सीआरपीएफ, मेरे फूफाजी सीआरपीएफ, मेरे ताऊजी के बेटे दोनों बेटे आर्मी, बुआ का बेटा आर्मी में हैं. मेरे एक और भाई अभी आर्मी में लगने की तैयारी कर रहा है, उससे छोटा एक और भाई भी बारहवीं करते ही फ़ौज में जाएगा.

    जब पठानकोट बेस में हमला हुआ था तब मेरे भाईसाहब, भाभी और भतीजी उसी कैंप से महज 5 किलोमीटर दूर थे. मेरे ताऊ-ताई और दादी-दादी सबके हाल बुरे थे.

    2010 के आस-पास मेरे फूफाजी की पोस्टिंग नक्सली एरिया में थी. उसी दौरान हुए एक नक्सली हमले में 76 जवान भी मारे गए थे. मेरी बुआ कितनी परेशान रही टीवी की खबरें देख-देख कर. लेकिन मैं कह रही हूं कि मेरे घर की औरतें अपने पतियों और बेटे को सही सलामत देखना चाहती हैं और युद्ध नहीं तो आपको दिक्कत है?

    मैं हैरान-परेशान हूं कि ये कौन लोग हैं जो एक-एक घर के तीन-तीन फौजियों की लाशें देखने को तत्पर हैं. इनकी आईडी देखने पर तो ये आईआईएम से डिग्री लिए दिखते हैं. कोई महंगी कार के सामने खड़ा है. मलतब सब रसूखदार लोग हैं. नोट छापने वाले. लेकिन ये हमारे भाइयों को युद्ध के लिए भेजना चाहते हैं. हमारी बुआओं, चाचियों और भाभियों को विधवा और उनके बच्चों को अनाथ देखना चाहते हैं?

    अभी दिसंबर में सीआरपीएफ के जवान कुछ मांगों को लेकर जंतर-मंतर आए थे. अगर इन तथाकथित लोगों की नज़र उनपर पड़ती तो तेज बहादुर की तरह उन्हें पागल घोषित करते. लेकिन याद आया बीएसएफ के तेज बहादुर ने जब आवाज़ उठाई कि हमें खाने में ये मिल रहा है तो वो भी देशद्रोही हो गया था.

    सेना आवाज़ उठाए तो सेना देशद्रोही, किसानों के बच्चे आवाज़ उठाएं तो वो बच्चे भी देशद्रोही. इस देश में बस एक ही देशभक्त बचा है- वो है मध्यमवर्गीय शहरी.

    ये समय ऐसी पोस्ट लिखने का तो नहीं है लेकिन पिछली पोस्ट्स पर आए कमेंट्स ने मज़बूर किया. कुछ ट्रोल करने वाले भाई साहब सोचते हैं कि मैं जेएनयू से हूं. अरे नहीं ताऊ, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से हूं और बारहवीं तक गांव में ही पढ़ी हूं. किसान और फौजी परिवार से हूं.
    - Jyoti Yadav

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